हिंदी व्यंग्य की धाार्मिक पुस्तक: हरिशंकर परसाईहिंदी व्यंग्य की धाार्मिक पुस्तक: हरिशंकर परसाई

Hindivyangyaharishankar

इंस्पेक्टर मातादीन चहुंओर समाया : नरेन्द्र कोहली

परसाई जी की रचनाएं मैंने ‘धर्मयुग’ में अपने उस वय में पढ़नी आरंभ की थी, जब न तो साहित्य की उतनी समझ थी और न ही जीवन का अनुभव। मैं स्वभाव से पाठक था, इसलिए पढ़ता था। जिस रचना में रस मिलता था, उसे पढ़ जाता था। पढ़ते-पढ़ते लगा कि यह लेखक जो कुछ लिख रहा है, वह मैं भी लिखना चाहता हूं, क्योंकि वह समाज का सत्य है। समाज को मैं बहुत ज्यादा नहीं जानता था, फिर भी लगता था कि यह लेखक कृत्रिम सुहानेपन को हटाकर कुरूप यथार्थ को प्रस्तुत कर रहा है। यह मेरे स्वभाव के अनुकूल है। यह भी समझ में आ रहा था कि लोगों को झूठ पसंद नहीं है, किंतु न तो वे सच बोलते हैं और न सच बोलने की अनुमति देते हैं।
क्रमशः जीवन का अनुभव बढ़ा।
मैं तब कॉलेज में पढ़ा रहा था जब हमारे सहयोगी मल्होत्रा के साथ एक घटना घटी। वे अपने एक मित्र के साथ मोटरसाइकिल पर जा रहे थे। मोटरसाइकिल वे स्वयं ही चला रहे थे। सहसा कुछ ऐसा हो गया कि मोटरसाइकिल सड़क-मध्य की पटरी से जा टकराई। वे गिरे और अचेत हो गए। होश में आए तो अस्पताल के बिस्तर पर थे। पुलिस वाले उनका बयान लेने के लिए मुस्तैद ही नहीं खड़े थे, छटपटा भी रहे थे। मल्होत्रा ने सीधे शब्दों में बता दिया कि क्या हुआ था। पुलिस वाले ने कहा, ‘आप डरें नहीं। हमने उन दोनों को बांध रखा है, जिन्होंने आपको मारकर बेहोश कर दिया था।’
वे चकित रह गए, ‘किंतु मैं तो स्वयं मोटरसाइकिल चला रहा था।’
‘कोई बात नहीं। आप उन्हेें देख लें। और डरें नहीं। कोई आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।’ उनके सामने हथकड़ी में बंधा उनका मित्र और एक अपरिचित व्यक्ति खड़ा था। मित्र ने रोते हुए बताया, ‘तू बेहोश हो गया था यार। तुझे अस्पताल ले जाने के लिए न कोई टैक्सी वाला तैयार हुआ, न स्कूटर वाला। आता-जाता तो कोई रुका ही नहीं। अंत में इस भले आदमी ने अपना स्कूटर रोका और तुझ लहूलुहान को इसकी सहायता से उठाकर मैं यहां लाया। मुझे तो तेरे पास रुकना ही था, पर पुलिस वालों ने तेरे घर फोन तक करने के लिए मुझे बाहर नहीं जाने दिया। कहते हैं, मैं भाग जाऊंगा। और इस भले आदमी को भी तब से अब तक बांधकर रखा है।’
‘मेरी तो सारी दिहाड़ी ही तबाह हो गई साहब!’
तब मैंने इंस्पेक्टर मातादीन का चेहरा पहली बार देखा था।
उसके बाद एक बार हमारे कॉलेज के लड़कों में छुरेबाजी हो गई थी। बीच-बचाव के चक्कर में मेरे कपड़ों पर भी खून लग गया था। गवाही मुझे देनी ही थी। ‘मेडिको लीगल’ केस था। मुझे पुलिस वालों का भी भय था और उन चाकूबाज लड़कों का भी, जिन्होंने यह कांड किया था। मैं तीन दिनों तक कांपता रहा कि जाने कब पुलिस वाले आ जाएंगे किंतु कोई नहीं आया।
बाद में उन लड़कों में से ही एक ने बताया, ‘कोई नहीं आएगा सर!’
‘क्यों?’
‘वारदात से पहले ही थाने में पैसे पहुंचा दिए थे।’
तब मैंने इंस्पेक्टर मातादीन का चेहरा दूसरी बार देखा।
समाचार-पत्र में पढ़ा कि मेरठ के पास डाकुओं ने एक बस रोकी और यात्रियों को लूट लिया। उन्होंने लूट के पैसे गिने। सात हजार कुछ रुपए थे। उन्होंने वे पैसे यात्रियों को लौटा दिए। किसी ने दुस्साहस कर पूछ ही लिया, ‘भले आदमी लूटकर कभी कोई पैसे लौटाता भी है?’
डाकुओं के सरदार ने उत्तर दिया, ‘एक बस लूटने के थाने में दस हजार देते हैं। सात हजार में बस कैसे लूट लें?’
तब मैंने तीसरी बार इंस्पेक्टर मातादीन का चेहरा देखा था। और अब तो प्रतिदिन वही देखते रहते हैं। प्रतिदिन समाचार-पत्र पढ़कर परसाई जी के ये वाक्य स्मरण हो आते हैं-
‘कोई आदमी किसी मरते हुए आदमी के पास नहीं जाता, इस डर से कि वह कत्ल के मामले में फंसा दिया जाएगा। —बेटा बीमार पिता की सेवा नहीं करता। वह डरता है कि बाप मर गया तो कहीं उस पर हत्या का आरोप न लगा दिया जाए। —घर जलते रहते हैं और कोई उसे बुझाने नहीं जाता-डरता है कि कहीं उस पर आग लगाने का जुर्म कायम न कर दिया जाए। —बच्चे नदी में डूबते रहते हैं और कोई उन्हें नहीं बचाता। इस डर से कि कहीं उस पर बच्चों को डुबोने का आरोप न लग जाए। —सारे मानवीय संबंध समाप्त हो रहे हैं। मातादीन जी ने हमारी आधी संस्कृति नष्ट कर दी है। अगर वे यहां रहे तो पूरी संस्कृति नष्ट कर देंगे। उन्हें फौरन रामराज में बुला लिया जाए।’
आजकल हमारे यहां भी हत्याएं होती हैं और कोई हत्यारा नहीं होता। बलात्कार होते हैं और बलात्कारी नहीं होता, केवल पीड़ित युवती अथवा बच्ची का शव होता है। आतंकी घटनाएं होती हैं और किसी को फांसी नहीं होती। काला बाजार, उत्कोच और भ्रष्टाचार की घटनाएं होती हैं। सरकार तो क्या प्रधानमंत्री तक को उसका पता होता है, किंतु वे कहते हैं कि वे इतने भले आदमी हैं कि कोई उनकी बात नहीं मानता। शहीदों को देशद्रोही और देशद्रोहियों को देश का नायक बनाने का अति उन्नत कोर्स और प्रशिक्षण इंस्पेक्टर मातादीन प्राप्त कर चुके हैं।

इतिहास का वर्तमान: आज के बौद्धिक सरोकार (भाग-2)इतिहास का वर्तमान: आज के बौद्धिक सरोकार (भाग-2)

हिंदुत्व के रखवाले

“कल मैं अपनी बात पूरी नहीं कर पाया क्योंकि तुम कुछ थके से लग रहे थे।’

‘थका नहीं था, यह जो धर्म-वर्म का चक्कर है इसमें एक बार घुस जाओ तो निकलने का रास्ता ही नहीं मिलता है, इसलिए हम लोग इससे बचते हैं। तुम तो लगता है उसी दुनिया के लिए बने हो, वहाँ तुम्हें इतना सुकून मिलता है कि बाहर आना ही नहीं चाहते।’ 

“तुम इससे बचते नहीं हो, बच सकते ही नहीं, तुम इसे दुम की ओर से पकड़कर पीछे खींचना चाहते हो, वह पलटकर तुम्हें खा जाता है और तुम्हारा चेहरा मुस्लिम लीग के चेहरे में बदल जाता है, जिसे तुम लाल झंडे से छिपाना चाहते हो। जानते हो मैं क्‍यों सेक्युलरिज्म का झंडा और सेमेटिज्म का डंडा उठाकर चलने वालों को भग्नचेत यानी शिजोफेनिक मानता हूँ? इसलिए कि/तुम हाहाकार मचाते हो हिंदू मूल्यों को बचाने का, साथ देते हो उन मूल्यों को नष्ट करने वालों का। बात करते हो समावेशिता का, बहुलता का और साथ देते हो बहुलता और समावेशिता को नष्ट करने वालों का। बात करते हो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की और वह स्वतंत्रता तुमने कभी किसी को दी ही नहीं और आज भी स्वतंत्र विचारों को नहीं सुनते, सुनते प्रियं अनिष्टकरं को हो। तुम्हें किसी ने हाशिए पर नहीं लगाया, स्मृतिभ्रंश और तज्जन्य बुद्धिनाश के शिकार हो गए-‘स्मृति भ्रंशात्‌ बुद्धिनाश: बुद्धिनाशात्‌ प्रणश्यति।’ कई बार सोचना पड़ता है कि क्या गीता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को आगाह करने के लिए त्रिकालदर्शी प्रज्ञा से लिखी गई थी, और दुःख होता है यह सोचकर कि हमारे पितरों ने जो पाठ अपने वंशजों के लिए लिखा था उसको समझने की योग्यता तक तुम अर्जित न कर सके।’

“गजब का स्टैमिना है, बेवकूफी की बातें भी इतने आत्मविश्वास से करते हो कि अनाड़ी आदमी हो तो उसे ही सही मान ले। अरे भई, पढ़ने को बहुत कुछ है दुनिया में, चुनाव करना पड़ता है, कौन सा ज्ञान कब का है और उसे पढ़कर हम इतिहास के किस मुकाम पर ठहरे रह जाएँगे। हम नए ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक सूचनाओं से लैस होने का प्रयत्न करते हैं कि अपने समय के साथ चल सकें, तुम दो हजार, चार हजार वर्ष पीछे की चीजें पढ़ते हो और वहीं ठिठके रह जाते हो, आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते। अतीत के अंधविवर में कितने सुकून से रह लेते हो, यह सोचकर दया आती है। तुम जिसे अनमोल समझकर गले लटकाए फिरंते हो वह गले में बँधा पत्थर है। डूबने वालों के काम आता है। हम तुम्हें बचाने के लिए कहते हैं, “हटाओ इसे ‘, तुम सुनते हो ‘मिटाओ इसे ‘। हल्यूसिनेशन के शिकार तो तुम हो।’

दाद दिए बिना न रहा गया, पर याद दिलाना पड़ा कि “जानना जीना नहीं है, निर्मूल होकर हवा में उड़ते फिरोगे, और इस भ्रम में भी रहोगे कि खासी ऊँचाई पर पहुँच गए हो, पर हवा के तनिक से मोड़ या ठहराव के साथ जमीन पर कूड़े की तरह बिखर जाआगे। मूलोच्छिन्न उधिया सकता है, तनकर खड़ा नहीं हो सकता।’

“जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो, वह अमल में आ जाए तो जानते हो भारत का क्या हाल होगा। वह हिंदू पाकिस्तान बन जाएगा। भारत का नाम नक्शे पर रहेगा, पर भारत पाकिस्तान की दर्पणछाया बन जाएगा, देखने में उलटा, परंतु सर्वांग सदृश। तुम नाम से हिंदू हो, हम आत्मा से, इसलिए उन मूल्यों के लिए तुम खतरा बन रहे हो और हम उन्हें तुमसे बचाने पर लगे हुए हैं। हम हिंदुत्व का विरोध नहीं करते, हिंदू समाज के सैफ्रनाइजेशन का, भगवाकरण का विरोध करते हैं। हम हिंदुत्व की रक्षा करना चाहते हैं, तुम उसे मिटा रहे हो। समझे?’

“यह बताओ, तुम्हारी जमात में कोई ऐसा आदमी मिल सकता है जो होश-हवास में हो? ऐसा जो उन शब्दों का मतलब जानता हो जिनका वह धडल्ले से प्रयोग करता है? सैफ्रन-सैफ्रन चिल्लाते रहते हो, फिर भगवा-भगवा चिल्लाने लगते हो, इनका अर्थ जानते हो? सैफ्रन का अर्थ जानते हो?!

‘जानूँगा क्यों नहीं। सैफ्रन, जाफरान, केसर।’

यह जानते हो कि सैफ्रन अरबी जाफरान का बदला हुआ रूप है?

यह वह नहीं जानता था, फिर मैंने पूछा, ‘जाफरान अरब की जलवायु में नहीं उग सकता यह भी जानते होगे?’

वह तुरत मान गया। फिर मैंने समझाया कि “उच्चारण, श्रवण और संचार में इतने टेढ़े-मेढ़े रास्ते हैं जिन सबका पता आधुनिक भाषाविज्ञान को भी नहीं है, और यदि उस नियम का पता हो भी जिसमें केसर जाफरान बन सकता है तो मुझे अपनी सीमाओं के कारण, उसका ज्ञान नहीं, परंतु यह पता है कि शब्द वस्तु के साथ जाता है और नई स्थितियों के अनुसार ढल भी जाता है, और इसलिए यह कश्मीर के उत्पाद अथवा संस्कृत में इसके लिए प्रयुक्त शब्द केसर का प्रसार है और अरब तक सीधे जुड़े भारतीय व्यापारतंत्र के प्रताप का इस शब्द के माध्यम से एक नक्शा तक तैयार किया जा सकता है।’

“तुमसे इसके उत्तर की आशा भी नहीं थी, फिर भी जब तुम भगवाकरण कहते हो तो इसका पता होना चाहिए कि इसका अर्थ कया है, जानते हो?!

वह चक्कर खा गया। समझाना पड़ा, ‘भग-भर्ग का अर्थ है अग्नि, सूर्य, प्रकाश। इसका एक अर्थ भाग भी था, पर इसका स्रोत भिन्‍न है। इसके इतिहास में जाना न चाहेंगे क्योंकि तब बात फिर अधूरी रह जाएगी, इसलिए विश्वास करो ये सभी अर्थ थे और इनका पल्‍लवन भी हुआ, और इससे भक्त और भजन तक पैदा हो गए, परंतु यहाँ यह समझो कि भगवा का अर्थ था सूर्यवर्ण। इसके लिए जिस रंग को सबसे अनुरूप माना गया था, वह था केसर को उबालकर उससे पैदा होने वाला रंग और इस तरह केसरिया, शौर्य, गरिमा और गौरव का द्योतक बन गया। अब यह बताओ, गैरिक का अर्थ जानते हो क्या?!

वह नहीं जानता था। बताना पड़ा, ‘गैरिक का अर्थ है गेरू का वर्ण। जानते हो हरित वर्ण या हल्दी के रंग का इससे क्या संबंध है?’

वह यह भी नहीं जानता था, बताना पड़ा कि “* दसियों हजार साल पहले से एक बहुत बड़े भूभाग में कृमिनाशक के रूप में हल्दी और गेरू के रंग का प्रयोग होता आया है। हरित वर्ण या हल्दी का रंग और केसर वर्ण दोनों में निकटता है इसलिए केसरिया वास्तव में हल्दिया या हल्दी के रंग में रँगा हुआ वस्त्र हुआ।

* अब समझो, एक का संबंध शौर्य से हे और दूसरे का रोगाणु निवारण से। दोनों के अर्थभ्रम और वर्णपभ्रम से गेरू के रंग का या गैरिक (इनके साथ रामरज मिट्टी के रंग को दीवार आदि की रँँगाई आदि के संदर्भ में याद किया जा सकता है।) गेरू कृमिनाशक के रूप में प्रयोग में आता था। वस्त्र को कृमि निवारक बनाने के लिए गेरू या हल्दी में रँगा जाता था। गेरू में रँगा गैरिक या हल्दी में रँगा हरित इसके कारण एक-दूसरे के पर्याय बन गए। रोगनिवारण का विस्तार अमरता में हुआ और इनका अर्थ सूर्यवर्ण और अमरता का एक रूप हुआ सूर्यलोक या स्वर्ग में प्रवेश का अवसर। यह केसरिया बाने में प्रतिफलित हुआ। जब तुम सैफ्रनाइजेशन का उपहास करते हो तो कया जानते हो, तुम उन असंख्य बलिदानों का उपहास कर रहे हो। तुम जैसा सोचते हो उससे तो तुम भगत सिंह को भी मूर्ख कह सकते हो कि अपनी जान बचा सकता था फिर भी जान-बूझकर मृत्यु का वरण किया, और मौका मिलते ही भगत सिंह जिंदाबाद के नारे भी लगा सकते हो। अब नए सिरे से सोचो, पाओगे सैफ्रन का अर्थ है गौरव। शौर्य का वर्ण, त्याग का वर्ण, महिमा का वर्ण, सूर्यवर्ण, शूरों का वर्ण, अमरता का वर्ण, सुवर्ण या सुनहला रंग और जब तुम इसका उपहास करते हो तो इन सबका उपहास करते हो।

* जानते हो, एक समय था जब यह रंग भारत से लेकर यूरोप तक गौरव, महिमा, त्याग, बलिदान और शौर्य का रंग माना जाता था। तुम जानते हो अवेस्ता का रचनाकार कौन है? ‘

“जरदुस्त्र कहते हैं शायद।’

“जरंदुस्त्र नहीं, जरदवस्त्र या सुनहले या गैरिक या केसर वर्ण का वस्त्र पहनने वाला। तुमको पता है, रोम के लोग राजा के वस्त्र या लबादे को क्या कहते थे? स्वर्णिम वस्त्र या केसरिया वस्त्र, पर्पल रोब। यार, तुम होश में आओ, होश में सोचना-समझना और जो कुछ बकते हो उसके परिणामों को समझना शुरू कर दो तो तुमसे अच्छा कौन है? दिल जिगर लो जान लो। हम भी चाहते हैं तुम्हें तुम्हारी तूफाने-बदतमीजी और दौरे-बदहवासी से तुम्हें बाहर लाना।!

11-01-2016

इतिहास का वर्तमान: आज के बौद्धिक सरोकार (भाग-1)इतिहास का वर्तमान: आज के बौद्धिक सरोकार (भाग-1)

इतिहासपुरुष

‘तानाशाही के खतरे वाली जो बात तुम कर रहे थे वह तो सचमुच संभव लगती है। इस आदमी में तानाशाही प्रवृत्ति कूट-कूटकर भरी है। उसका चेहरा नहीं देखते। बोलता है तो लगता है बुलडॉग भौंक रहा है, पंजे मारता हुआ।’
मैंने कुछ खिन्न स्वर में कहा, ‘तुम्हें तुम्हारी पार्टी ने संस्कार में यही दिया? इससे आगे बढ़ने का मंत्र तक नहीं सिखाया।’
उसका चेहरा देखने लायक था।
मैं उस पर सवार हो गया, ‘देखो, तुम किसी व्यक्ति का अपमान नहीं कर रहे हो। अपने देश के प्रधानमंत्री का अपमान कर रहे हो। उस जनता का अपमान कर रहे हो जिसने उसे सिर-माथे चढ़ा लिया। और अपना भी अपमान कर रहे हो, क्योंकि तुम उसे देश के नागरिक हो जिसका प्रधानमंत्री वैसा है, जैसा तुमने बनाना और दिखाना चाहा।’
‘गलती हो गई भाई। माफ भी करो।’
‘गलती नहीं हुई है, यह तुम्हारी आदत का हिस्सा बन गया है, वरना यह बात तुम्हें कल ही समझ में आ गई होती, और इस गलती की नौबत न आती। बुरा मत मानना, साम्यवाद की लोरी सुनाते-सुनाते तुम्हें ऐसा घोल पिलाया जाता रहा कि तुम आदमी से भेड़िये में तबदील हो गए। तुम्हें अविजेय बनाने के लिए असरदार नारेबाजी और हंगामेबाजी की आदम डाली जाती रही। तुम्हारा सबसे प्रबुद्ध वर्ग तो मजदूर वर्ग है। सर्वहारा। उसकी भाषा तुम्हारे सुशिक्षित, प्रतिबद्ध वर्ग की आदर्श भाषा बन गई। वह समादृत संबंधों के स्वजनों-परिजनों के अंग-उपांग का नाम लेकर प्रजनन प्रक्रिया से जुड़े शब्दों का प्रयोग गाली के रूप में अपने कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए करता है, तुमने गालियों का स्तर थोड़ा ऊपर कर दिया। तुमको किसी ने बताया नहीं कि यह फासिस्टों और नाजियों की भाषा है और इसी धज में तुम्हें लंबी जबान और छोटे दिमाग के साथ फासिज्म से लड़ने को खड़ा कर दिया गया, जबकि तुम्हें यह बताया तक नहीं गया कि फासिज्म है क्या बला, किन परिस्थितियों में पैदा होता है, वह अपने भीतर से ही कितना खोखला होता है। बताया सिर्फ यह गया कि अन्य गालियों की तरह फासिज्म भी एक गाली है। जिसकी जबान बंद करनी हो उसे फासिस्ट कह दो और डंका बजाओ। अब तुम्हें आत्मोद्धार के लिए, अपने भेड़िये से लंबी जंग लड़नी होगी दुबारा आदमी बनने के लिए।’
वह ‘अब फूटा-तब फूटा’ की स्थिति में था। मैं आवेश में बोल तो गया पर ग्लानि मुझे भी थी। दोष उसका तो न था। एक जमाने में मैं यह भाषा भले न बोलता था, पर मुझे यह बुरी कतई नहीं लगती थी। ‘आधा गाँव’ के कुछ चरित्रों की भाषा आज भी गलत नहीं लगती। प्रश्न औचित्य का है। कुछ देर तक हम चुप बैठे रहे। जब चुप्पी भारी पड़ने लगी तो बात उसे ही शुरू करनी पड़ी, ‘मैंने कुछ सख्त बात कह दी, उसका खेद है, लेकिन यह तो मनोगे ही कि उसमें तानाशाही प्रवृत्ति है?’
‘भले मानस, खेद हुआ और जबाने संभाली तो कम से कम ‘उनमें’ तो कहा होता। चलो माफ किया। एक दिन में हुआ भी तो कितना सुधार होगा।
‘रही बात तानाशाही प्रवृत्ति की तो यह प्रवृत्ति तो मुझमें भी है। तुम मेरे लिखने-पढ़ने के कमरे को देखो तो बस केआस नजर आएगा। चीजें बिखरी हुई हैं। जो अपनी किताबें और कागज संभाल नहीं पाता वह भी सोचता है कि अगर मौका मिले तो मैं दुनिया को इस तरह चलाऊं। तानाशाह होना सभी चाहते हैं। कम से कम वे जो अपने घर परिवार को किसी आदर्श संस्था के रूप में चलाना चाहते हैं, छोटे-मोटे तानाशाह ही बने रहते हैं। तानाशाही इतनी बुरी चीज नहीं है। हां, दुरुस्त भी नहीं है। तानाशाह तो गांधी जी भी बनना चाहते थे और सच कहो तो जब तक उनकी चली तानाशाह ही बने रहे। नेहरू ने तो अपनी तानाशाही आकांक्षाओं के बारे में एक लेख, मॉडर्न रिव्यू में चाणक्य के नाम से लिखा था। बाद में किसी ने पूछा, क्या अब भी आप में वह प्रवृत्ति है, तो कहा, ‘मैंने पहले ही इसे भांप लिया था इसलिए बच गया।’ बचे वह भी नहीं, पर कोशिश करते रहे। नेहरू में जितना अंतर्विरोध मिलेगा उतना दूसरे किसी नेता में नहीं। वह अपने से लड़ते भी थे, अपने को छिपाते भी थे और अपनी जिद पर आ जाने पर जानते हुए कि यह शायद ठीक नहीं है वही करते थे। वह तानाशाही प्रवृत्ति उनमें दबी रही, इन्दिरा जी में उभर आई, पर इस प्रवृत्ति से लड़ने की कोशिश वह भी करती थीं, केवल कभी-कभी। संजय में यह जबरदस्त थी। मूर्खता की हद तक। मेनका में भी उतनी ही प्रबल है। जो लोग निर्माण करना चाहते हैं, वे जो कुछ जिस तरह बनाना चाहते हैं, उसमें बाधा न पड़े, सभी एक लय में, तालमेल से काम करें, उस सपने को साकार करने को जो महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति को तानाशाह बनाता है। फिल्म का डायरेक्टर, टीम का कप्तान, ऑर्केस्ट्रा का संचालक, सेना का नायक सभी तानाशाह ही होते हैं। तानाशाही प्रवृत्ति का मूल यही है। और तुमको तो ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए। तुम लोग तो स्वयं तानाशाही के पक्षधर हो। !

“अरे भई, वह तानाशाही किसी व्यक्ति की नहीं होती।’

मैं हँसने लगा तो वह सकपका गया।

“पहले इस कटु सत्य को समझो कि मोदी एक विषेष ऐतिहासिक परिस्थिति की उपज है। इतिहासपुरुष है। उसे भारतीय जन समाज ने 2013 में तानाशाह के रूप में… !

*2013 में नहीं, 2014 में और तानाशाह के रूप में नहीं, भावी प्रधानमंत्री के रूप में। तानाशाह वह खुद बनना चाहता है। जब तुम इतनी मामूली बातें भी नहीं समझ पाते तो… ‘

मैंने उसे वाक्य पूरा करने ही नहीं दिया, ‘2014 में निर्वाचन हुआ और जनता पार्टी जीती। जनता ने तो 2013 में ही उपलब्ध तानाशाहों में से किसी एक को चुनना आरंभ कर दिया था-आडवानी को इतने नंबर, राहुल को इतने, सोनिया को इतने, नीतीश को इतने और मोदी को इ-त-ने। एक बार नहीं, बार-बार मोदी को इ-त-ने नंबर मिलते रहे। जब किसी एक व्यक्ति को केंद्र में रखकर पूरा चुनाव हो तो जीत या हार किसी दल की नहीं होती, तानाशाह की होती है।’

‘ जनता का विश्वास कांग्रेस के कारनामों के कारण लोकतंत्र से उठ गया था। वह तानाशाह चुन रही थी और मोदी को चुन लिया था। कर्मकांड 2014 में पूरा हुआ। कांग्रेस 2013 में मान चुकी थी कि वह हार गई और जल्दी-जल्दी जो जर-जमीन हथियाया जा सकता था उसे हथियाने पर जुट गई थी, फिर भी एक आखिरी बाजी उसने लगाई, सबको भोजन का अधिकार। समाज ने समझा, ‘सब कुछ खा जाने का अधिकार।’ उसने कांग्रेस को यह बता दिया कि देश-हित तुम्हारी प्राथमिकता नहीं। उसने उसे हराया नहीं, धक्के देकर बाहर कर दिया, यह देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है, परंतु इसके लिए जिम्मेदार कौन है?

‘ अकेली ऐसी पार्टी जिसका देशव्यापी जनाधार था, जो ही विकल्प बन सकती थी, उसने अपना नैतिक औचित्य खो दिया। वह हारी नहीं। लोकतंत्र में हार-जीत होती रहती है। कांग्रेस का सफाया हो गया फिर भी प्रबल शक्ति बन कर सत्ता में आई, क्योंकि जिस विकल्प ने उसे सत्ता से बाहर किया था, वह धँस गया। कोई दूसरा विकल्प ही न था। इस बार कांग्रेस हारी नहीं है, अपनी भ्रष्टता के कारण अपना नैतिक अधिकार खोकर धँस गई है और अब नेहरू परिवार से बाहर आकर भी अपने मलबे सँभाल नहीं सकती। दुखद स्थिति है, पर है। क्या किया जा सकता है!

‘ इसमें आशा की किरण एक ही है कि लोगों ने भले तानाशाह चुना हो, इस व्यक्ति को लोकतंत्र में इतना अंडिग विश्वास है कि यह अपना विकल्प स्वयं पैदा करेगा। पर वह विकल्प या विपक्ष विकास की नीतियों से संचालित होगा, जाति और धर्म से नहीं।

‘ और जानते हो यह भी मोदी के कारण नहीं होगा, इतिहास के कारण होगा। पूँजीवादी विकास के कारण होगा। तानाशाही पूँजीवाद को रास नहीं आती। तानाशाही मध्यकालीन मनोवृत्ति है। तानाशाह स्वेच्छाचारी राजा का प्रतिरूप। मोदी को इसकी समझ हे, दूसरों को नहीं। वह बार-बार इसकी याद दिलाते हैं कि यह लोकतंत्र की महिमा है कि एक चाय बेचने वाला देश का प्रधानमंत्री बन गया। यह भारत में उभरते पूँजीवादी दबाव की भी महिमा है या नहीं?

‘ जनता ने भले तानाशाह चुना हो वह तानाशाह लोकतांत्रिक बने रहने के लिए संघर्ष कर रहा है, दुश्मनों और सगों दोनों से एक साथ लड़ता हुआ। ‘

02-11-2015

इब्ने मरियमइब्ने मरियम

नासिरा शर्मा की कलम से...

“इब्मे मरियम’ संग्रह की सारी कहानियाँ एक विशेष स्थिति की हैं जिसमें फंसा इन्सान जीने के लिए छटपटाता हे । कभी उसका यह संघर्ष अपने अधिकार को पाने के लिए होता है तो कभी समाज को बेहतर बनाने के लिए करता है । ऐसे ही हालात की कहानी ‘ज़ैतून के साये’ हे जिसको लिखते हुए मेरे मन- मस्तिष्क में इतिहास के दरीचे खुले हुए थे। जिसमें इस ख़बर की भी गूँज थी कि फिलीस्तीनी गुरिललाओं ने अपनी तंगहाली से परेशान होकर मुर्दा इन्सानी गोश्त’ खाने के लिए फतवा माँगा है ताकि हराम” चीज़ ‘हलाल’ हो जाए ओर वे भूंखे मरने की जगह ज़िन्दा रहकर अपना जद्दोजहद जारी रख सकें ।

इस कहानी को लिखने का सच सिर्फ इतना-सा नहीं था बल्कि यहूदियों की भी अतीत की गाथा सामने थी जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में तनाव के लम्बे गलियारे पार किए थे । जर्मनों की हार के बाद अपराधियों को सज़ा देने के लिए नन्यूरेमबर्ग वार क्राइम ट्रायल्स’ नामक अदालत का गठन हुआ था। एक दिन एक कवि वहाँ “गंवाह’ के रूप में आया,जो पोलेण्ड के विलना कस्बे में यहूदियों के क़ब्रिस्तान की एक पुरानी कब्र में रहता था। उस समय “गैस चेम्बर’ से बचने के लिए यहूदी क़ब्र में शरण लेते थे। इस कवि के पड़ोस वाली क़ब्र में एक युवती ने एक बच्चे को जन्म दिया। उस कब्रिस्तान के बूढ़े चौकीदार ने प्रसूति में सहायता की और इसी घटना पर उसने “जन्म’ नामक कविता लिखी थी।

यहूदियों और फिलीस्तीनियों को जब अलग कालखंड में देखती हूं तो मुझे उनकी पीड़ा बुरी तरह झँझोड़ती है और मुझे भारत का बँटवारा और उससे उपजी त्रासदी का ध्यान आता है जो आज भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। ऊपर से पंजाब सुलग उठा । इस त्रिकोण पर मेरी कहानी ‘आमोख्ता’ है। इसका नाम “आमोख़्ता’ रखने के पीछे मेश मकसद यह है कि आख़िर एक पीढ़ी गुज़री हुई पीढ़ी के अनुभव से लाभ क्यों नहीं उठा पाती है? आख़िर उसके समय का यथार्थ उसे अपने वश में कर वही सबकुछ दोहरवाता है जो उसके पूर्वजों ने सहा था। आख़िर क्‍यों ? 

ये सारी इन्सानी समस्याएँ मुझे कई-कई स्तर पर हान्ट करती हैें। आमोख्ता (पंजाब), जड़ें (युगांडा), ज़ेतून के साये (फिलीस्तीन), काला सूरज (इथोपिया), काग़ज़ी बादाम (अफ़गानिस्तान), तीसरा मोर्चा (कश्मीर), मोमजामा (सीरिया), मिस्टर ब्राउनी (स्कॉटलैण्ड), कशीदाकारी (बंगला देश), जुलजुता (कनाड़ा), पुल-ए-सरात (इराक़), जहांनुमा (टर्की), इब्ने मरियम (भोपाल)–इन सारी कहानियों में उस धारा को संवेदना के समन्दर से पकड़ने की कोशिश की है जो मानवीय है। वास्तव में इन्सान के अन्दर पलती जिजीविषा मुझे सृजन के स्तर पर बाँधती है और जीने की यही छटपटाहट मुझे लिखने की प्रेरणा देती है ।
मेरे सोच के सिलसिले की भावनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में मेरी ये कहानियाँ पाठकों को बुरी नहीं लगेंगी बल्कि मेरा विश्वास है कि ये उन्हें संवेदना के धरातल पर अधिक अपनी-सी लगेंगी।
–नासिरा शर्मा

देश-विदेश की लोककथाएंदेश-विदेश की लोककथाएं

काठ के जूते

बहुत समय पहले की बात है। जापान में निप्पन नाम का एक छोटा-सा राज्य था। वहां के राजा का नाम मासामू था। एक छोटे से राज्य का राजा होने पर भी उसका प्रताप बहुत था। जापान के सम्राट्‌ मिकाडो पर भी उसका बहुत प्रभाव था।

मासामू अत्याचारी शासक था। वह अपनी प्रजा को अनेक प्रकार से परेशान किया करता था। इसलिए सब लोग उससे घबराते थे। निप्पन में ठंड बहुत भयंकर पड़ती थी। जाड़े की ऋतु में पानी जमकर बर्फ हो जाता था।

एक बार जाड़े की ऋतु में सवेरे उठने पर मासामू ने देखा कि समस्त धरती बर्फ से ढकी हुई है। उसने सोचा-‘प्रकृति के इस रूप को अच्छी तरह देखने के लिए नगर के बाहर बने हुए आवास में चलना चाहिए | यह सोचकर वह अपने मित्रों और सेवकों को साथ लेकर उस आवास में पहुंचा ।

जिन दिनों की यह कहानी है, उन दिनों जापान के लोग चमड़े के जूते नहीं पहनते थे। वे काठ के जूते पहनते थे। इन्हें ‘गेटा’ नाम से पुकारा जाता था। जापान के लोग गेटा पहनकर कमरे के अंदर प्रवेश नहीं करते थे। मासामू और उसके साथी भी अपने गेटे बाहर निकालकर ही अंदर गए। जिस नौकर पर जूतों की देख-रेख का भार था, उसका नाम हेइशिरो था। हेइशिरो ने सोचा-“मासामू जब बाहर आएंगे तो भीगे हुए गेटे पहनने में उन्हें कष्ट होगा! उसने जूतों को अपने कपड़ों के अंदर छिपा लिया ताकि वे भीग न सकें।

मासामू जब बाहर आया तो हेइशिरो ने उसके गेटे’ बाहर निकालकर रख दिए। मासामू ने जब गेटे पहने तो वह अवाक्‌ रह गया। उसने सोचा-“जब सारी धरती बर्फ से ढक गई है, तो मेरे गेटे बिना भीगे कैसे रह गए। हो न हो, यह बदमाश नौकर मेरे जूतों पर बैठा आराम कर रहा होगा। मैं अभी इसे इस बात का मजा चखाता हूं।’ यह सोचकर मासामू ने गेटे हाथ में लेकर धमाधम हेइशिरो के सिर में मारना शुरू किया। हेइशिरों बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।

हेइशिरो वहीं पर बेहोश पड़ा रहा। दूसरे दिन जब उसको होश आया तो उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। उसके सिर से आग की लपटें-सी निकल रही थीं। उसने निश्चय किया–‘मैं इसका प्रतिशोध मासामू से अवश्य लेकर छोड़ंगा ।

बदला लेने के कई उपाय उसके दिमाग में आए, किंतु उनमें से एक भी उसको पसंद नहीं आया। सोचते-सोचते उसके दिमाग में एक विचार आया। उसने सोचा-“राजा-महाराजा साधु-संन्यासियों की बड़ी इज्जत करते हैं। यदि मैं भी एक प्रसिद्ध साधु बन जाऊं तो जापान का सम्राट्‌ मेरा सम्मान करेगा। तब मैं उससे कहकर मासामू को दंड दिलवाऊंगा ! यह सोचकर वह एक बौद्ध मठ में गया। वहीं दीक्षा लेकर वह बौद्ध भिक्षु बन गया। उसके बाद उसने एकाग्रचित्त होकर भगवान्‌ बुद्ध का ध्यान करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वह भी एक प्रसिद्ध साधु बन गया। जापान के सम्राट्‌ मिकाडो से अभी उसका कोई परिचय नहीं हुआ था और उसके बिना उसका उद्देश्य पूरा कहां होता! उसने और प्रयास किया।

होते-होते वह एक बौद्ध भिक्षु के रूप में विख्यात हो गया। बहुत समय तक भ्रमण करने के बाद वह एक मठ में स्थायी रूप से रहने लगा। वह हमेशा अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए चिंतित रहता था। उसको पता लगा कि मासामू एक बड़े राज्य का राजा बन गया है और उसका प्रताप पहले से ज्यादा बढ़ गया है। फिर भी उसने आशा नहीं छोड़ी ।

कुछ दिन बाद ही उसे इसका अवसर मिल गया। जापान का सम्राट्‌ मिकाडो बीमार पड़ गया। बहुत प्रकार से चिकित्सा हुई, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। लोगों ने सोचा कि सम्राट्‌ के ऊपर भूत-प्रेतों की दृष्टि पड़ी है। इसमें डॉक्टर क्या करेंगे? साधु-संन्यासियों को ढूंढ़ा गया। बहुत से साधु-संन्यासी राजा को देखने आए, लेकिन किसी से उसका उपचार नहीं हुआ। तब राजमहल में खबर पहुंची कि राजधानी के बौद्ध मठ में एक सुप्रसिद्ध और गुणी भिक्षु रहता है। वह भिक्षु हेइशिरो ही था। राजा के लोग हेइशिरो के पास पहुंचे। उसके आनंद की सीमा नहीं थी, क्योंकि उसका उद्देश्य सफल होने जा रहा था।

राजमहल में आकर हेइशिरो ने एकांत में भगवान्‌ बुद्ध की प्रार्थना की। उसके बाद उसने राजा की अच्छी तरह परीक्षा की, लेकिन जो रोग राजा को था, उसकी कोई औषधि वह नहीं जानता था। वह तो सिर्फ भगवान्‌ तथागत से उसके जीवन की भीख ही मांग सकता था और भगवान्‌ ने उसकी प्रार्थना सुन ली।

धीरे-धीरे सम्राट्‌ स्वस्थ हो गए। चारों तरफ हेइशिरो की जय-जयकार होने लगी। सारे देश में उसका नाम फैल गया। सब लोग उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे। हेइशिरो ने सोचा-“अब प्रतिशोध लेने का समय आ पहुंचा है ।’ एक दिन रात के समय वह इसी बात पर सोच-विचार रहा था, उसी समय एक आश्चर्यजनक बात हुई। सारा कमरा एक अपूर्व प्रकाश से जगमगा उठा। हेइशिरो ने देखा, एक ज्योतिर्मय पुरुष धीरे-धीरे उसकी ओर आ रहा है। मृदु हास्य से उसका मुखमंडल उज्ज्वल हो रहा है।

हेइशिरो को पहचानने में देर नहीं लगी । उनकी आराधना में ही उसने सारा जीवन बिता दिया था। वे स्वयं भगवान्‌ तथागत थे। आगे बढ़कर उन्होंने हेईशिरो के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और चुपचाप जैसे आए थे, वैसे ही वापस लौट गए।

हेइशिरों कमरे से बाहर निकलकर बरामदे में आया। उसको ऐसा लगा, मानो समस्त संसार में अभूतपूर्व प्रकाश फैल गया है। सारी दुनिया में एक अद्भुत शांति का साम्राज्य स्थापित हो गया है। कहीं कोई हिंसा नहीं, कोई ईर्ष्या-द्वेष नहीं। पृथ्वी का यह नूतन रूप देखकर वह अवाक्‌ रह गया।

जिस उद्देश्य के लिए वह भिक्षु हुआ था, वह अकस्मात्‌ समाप्त हो गया। प्रतिहिंसा की जो अग्नि उसके हृदय में धधक रही थी, वह अचानक बुझ गई | उसका मन शांत हो गया। अपने इस हदय-परिवर्तन के लिए वह भगवान्‌ तथागत के प्रति श्रद्धानत हो गया। दूसरे दिन उसने अपने एक भक्त को मासामू को बुला लाने के लिए भेजा। मासामू स्वयं भी मिलने को उत्सुक था; क्योंकि उसने इस भिक्षु का नाम सुना था। वह तुरंत आया।

हेइशिरो के सामने एक चौकी पर मासामू के वे ही गेटे पड़े हुए थे, जिनसे कभी मासामू ने हेडशिरों को बिना किसी अपराध के चोट मारी थी। मासामू ने न तो उस साधु को ही पहचाना और न अपने गेटे के जोड़े को ही। उसने पूछा-“ये किसकी चरण-पादुका हैं, जिनको आपने इतना सम्मान दे रखा है?”

हेइशिरो ने सारा वृत्तांत कह सुनाया। उसे सुनकर मासामू को बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वह हेइशिरो से बार-बार क्षमा मांगता हुआ उसके चरणों पर गिर पड़ा। हेइशिरो ने आगे बढ़कर उसको अपने हृदय से लगा लिया। उसने कहा-“बेटे, गलतियां किससे नहीं होतीं । उन्हें भुला देना ही मनुष्य का श्रेष्ठ धर्म है। छोटी-छोटी बातें यदि हम अपने मन के भीतर रखे रहें, तो उससे हमारा मन ही खराब होता है।”

नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँनोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ

लेखक: जॉन गाल्सवर्दी

जन्म: 14 अगस्त, 1867, किंगस्टन, इंग्लैंड

मृत्यु: 31 जनवरी, 1933

जॉन गाल्सवर्दी को सन 1932 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। ये थे तो विक्टोरिया के समय के और इसलिए इन्हें विक्टोरियन भी कहा जा सकता है, परंतु इन्होंने विक्टोरियन आदर्शों का ही अपनी रचनाओं में मजाक उड़ाया था। ये स्वयं धनी थे, परंतु इन्होंने सुंदर ढंग से धनी व्यक्तियों तथा श्रेणियों के ऊपर धन का कुप्रभाव चित्रित किया है। इन्होंने सत्रह उपन्यास, छब्बीस नाटक, कहानियाँ (12 खंडों में प्रकाशित), लेख तथा कुछ कविताएँ लिखी हैं। इनको ख्याति मुख्यतः इनके उपन्यासों
पर आधारित है, किंतु अपने समय में इनके नाटकों ने भी कुछ कम यश नहीं कमाया था।
पुरस्कृत कृति: दि फोरसाइट सागा।
स्वीडिश अकादेमी ने इन्हें पुरस्कार प्रदान करते हुए कहा था, ‘इनकी विषय-निरूपण की अपूर्व और विशिष्ट कला के लिए, जो कि ‘दि फारसाइट सागा’ में अपने उच्चतम रूप में प्रकट हुई है, इन्हें यह पुरस्कार दिया जा रहा है।’
इनकी अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं: ‘द आइलैंड फैरिसीज’, ‘द मैन ऑफ प्रापर्टी’, ‘द डार्क फ्लोअर’, ‘इन चान्सरी’, टु लेट’, ‘लायल्टीज’, ‘द व्हाइट मंकी’, ‘द रिल्वर बॉक्स’ आदि। 

वह असफलताओं से खेलता रहा

ऋतु गर्म हो या ठंडी, अच्छी हो या बुरी, इससे अधिक निश्चित बात और वह लँगड़ा आदमी शहतूत की टेढ़ी-मेढ़ी छड़ी के सहारे चलता हुआ यहाँ से अवश्य गुजरेगा। उसके कंधे पर लटकती हुई खपच्चियों की बनी हुईं टोकरी में एक फटी-पुरानी बोरी से ढके हुए ग्रोंडसील के बीज पड़े हुए थे। ग्रोंडसील घास की तरह एक छोटा-सा पौधा है, जिसमें पीले रंग के फूल लगते हैं। पालतू पक्षी इसके बीज शौक से खाते हैं।
खुंबियों के मौसम में वह खुंबियाँ भी अखबार में लपेटकर टोकरी के अंदर रख लेता है। उसका चेहरा सपाट व मजबूत था। उसकी लाल दाढ़ी की रंगत भूरी होती जा रही थी और झुर्रियों भरे चेहरे से उदासी टपकती थी, क्योंकि उसकी टाँग में हर समय टीसें उठती थीं। एक दुर्घटना में उसकी यह टाँग कट गई थी और अब सही-सलामत टाँग से कोई दो इंच छोटी थी। टाँग की पीड़ा और काम में असमर्थता उसे हर समय इनसान के नश्वर होने का अहसास दिलाती थी। शक्ल से वह संपन्न न सही, सम्मानित अवश्य दिखाई देता था, क्योंकि उसका नीला ओवरकोट बहुत पुराना था। जुराबें, सदरी और टोपी निरंतर
उपयोग से घिस-पिट गई थीं और बदलती हुई ऋतुओं ने उन पर स्पष्ट निशान छोड़े थे। दुर्घटना से पूर्व वह गहरे पानी में मछलियाँ पकड़ा करता था, लेकिन अब बेस-वाटर के कस्बे में एक स्थान पर फुटपाथ के किनारे सुबह दस बजे से शाम सात बजे तक पालतू पक्षियों का खाना बेचकर जीवन के बुरे-भले दिन काट रहा था। राह चलती हुई सम्मानित महिलाओं में से किसी के मन में अपने पालतू पक्षी की सेवा का खयाल आता तो वह उससे एकाध पिनी के बीज खरीद लेती।

जैसाकि वह बताता था, कई बार उसे बीज प्राप्त करने में कठिनाई होती थी। वह सुबह पाँच बजे बिस्तर से उठता। भाग-दौड़ में लंदन से देहात की ओर जाने वाली गाड़ी पकड़ता और उन खुले मैदानों में पहुँच जाता, जहाँ केनरी और अन्य पालतू पक्षियों की खुराक मिलने की संभावना होती थी। वह बड़ी कठिनाइयों से अपनी असमर्थ टाँगें धरती पर घसीटता था। प्रकृति का अत्याचार देखिए कि धरती जिस पर वह घास के बीच ढूँढ़ता था, बहुत कम शुष्क होती थी। प्रायः उसे सिर झुकाकर कीचड़ और कुहरे में पीली छतरियों वाले छोटे-छोटे पौधे इकट्ठे करने होते। वह स्वयं कहा करता कि कम पौधों के बीज सही-सलामत मिलते थे। अधिकांश हिमपात के कारण नष्ट हो जाते थे। बहरहाल जो भाग्य में होता, मिल जाता। वह उसे लेकर गाड़ी के द्वारा लंबन वापस आता और फिर दिन-भर के अभियान पर निकल खड़ा होता। सुबह से शाम तक परिश्रम के बाद रात के नौ-दस बजे तक वह लड़खड़ाता घर की ओर चल देता। ऐसे अवसरों पर विशेषतः अनुपयुक्त परिस्थितियों में, उसकी आँखें, जो अभी तक समुद्र की अज्ञात विशालताएँ देखने की विशेषता से वंचित न हुई थीं, आत्मा की गहराइयों में छुपे हुए स्थायी दुःख का पता देतीं। उसकी यह स्थिति उस पक्षी से मिलती-जुलती थी, जो पंख कटने के बावजूद बार-बार उड़ने का प्रयत्न कर रहा हो। कभी-कभार जब ग्रोंडसील के बीज न मिलते असमर्थ टाँग में शिद्दत की पीड़ा उठती या कोई ग्राहक नजर न आता तो बरबस उसके मुख से निकलता, ‘कितना कठिन है यह जीवन!’

टाँग की पीड़ा तो उसे सदा करती थी, फिर भी वह अपने दुःख, ग्रोंडसील बीज की कमी या ग्राहकों की लापरवाही की शिकायत बहुत कम करता था। इसलिए कि वह जानता था कि उसकी शिकायत पर कान धरने वाले बहुत कम होंगे। वह फुटपाथ पर चुपचाप बैठा या खड़ा रहकर गुजरने वालों को देखता रहता था। बिलकुल उसी प्रकार जैसे कभी वह उन लहरों को देखता करता था, जो उसकी नाव से आकर टकराती थीं। उसकी कभी न रुकने वाली तहदार नीली आँखों से असाधारण धैर्य व सहनशीलता की भावनाएँ प्रकट होती थीं। अवचेतन रूप में ये भावनाएँ एक ऐसे व्यक्ति के धर्म का प्रकट करती थीं जो हर बड़ी से बड़ी बठिनाई में कहता हो, ‘मैं आखिरी दम तक लड़ूंगा।’ 

यह बताना बहुत कठिन है कि दिन भर फुटपाथ पर खड़े-खड़े वह क्या सोचता था! मगर उसकी सोच पुराने युग से संबंधित हो सकती थी। हो सकता है, वह गडोन के रेतीले किनारों के बारे में विचार करता हो या ग्रोंडसील की कलियों के बारे में चिंतातुर हो, जो अच्छी तरह खिलती न थीं। कभी टाँग उसकी चिंता का विषय बन जाती, तो कभी वह कुत्ते जो उसकी टोकरी देखते ही सूँघते हुए आगे बढ़ते और बहुत बदतमीजी का प्रदर्शन करते थे। संभवतः उसे अपनी पत्नी की चिंता भी थी, जो गठिए के पीड़ाजनक रोग से ग्रस्त थी। कभी वह मछेरा था, इसलिए अभी तक चाय के साथ हेरिंग मछली खाने की इच्छा होती थी। संभव है, वह यही सोचता हो कि मछली कैसे प्राप्त करें! या मकान का किराया भी देना था, इसकी चिंता भी उसे पागल करती होगी। या ग्राहकों की संख्या भी तो दिन ब दिन कम होती जा रही थी और एक बार फिर टाँग की पीड़ा की तीव्रता का अहसास! उफ्! 

राह चलने वालों में से किसी के पास इतना समय न था कि एक क्षण रुककर उसकी ओर देखे। कभी-कभार कोई महिला अपने चहेते मियाँ मिट्ठू के लिए एकाध पीनी के बीज खरीदती और लपक-झपक आगे बढ़ जाती। सच बात तो यह है कि लोग उसकी ओर देखते भी क्यों! उसमें कोई खास बात तो थी नहीं। बेचारा सीधा-सादा भूरी दाढ़ीवाला आदमी था। जिसके चेहरे की झुर्रियाँ बहुत गहरी और स्पष्ट थीं और जिसकी एक टाँग में नुक्स था। उसके बीज भी इतने खराब होते थे कि लोग अपने पक्षियों को खिलाना पसंद न करते और साफ कह देते कि आजकल तुम्हारे ग्रांेडसील के बीज अच्छे नहीं होते और फिर साथ ही क्षमापूर्वक कहते, ‘ऋतु भी खराब है।’

ऐसे अवसरों पर वह कुछ इस प्रकार उत्तर दिया करता था, ‘जी…जी हाँ, मादाम! मौसम बड़ा खराब है! आप शायद नहीं जानतीं, यहाँ इस जगह मेरी टाँग की पीड़ा बढ़ गई है।’

उसकी यह बात शत-प्रतिशत सच थी, लेकिन लोग उस पर अधिक ध्यान न देते और अपने काम से आगे बढ़ जाते। शायद वे समझते हों कि लँगड़े का हर बात में अपनी टाँग का जिक्र करना शोभा नहीं देता। प्रकटतः यही नजर आता था कि वह अपनी जख्मी टाँग का हवाला देकर दूसरों की हमदर्दी प्राप्त करना चाहता है, पर असल बात यह है कि उस व्यक्ति में वह शर्म-लिहाज और शराफल मौजूद थी, जो गहरे पानी के मछेरों की विशेषता है, किंतु टाँग का जख्म इतना पुराना हो चुका है कि हर समय उसकी चिंता लगी रहती थी। यह दुःख और पीड़ाएँ उसके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थीं और वह चाहता तो भी उसके जिक्र से बाज नहीं आता। कई बार जब मौसम अच्छा होता और उसके गांेडसील खूब फलदार होते तो उसे ग्राहकों की ओर से ऐसी सांत्वनाओं की जरूरत न पड़ती थी। ग्राहक भी खुश हो उसे आधी पिनी के बजाय एक पिनी दे डालने। हो सकता है इस ‘टिप’ के कारण उसे अवचेतन रूप में अपनी टाँग का जिक्र करने की आदत हो गई हो।

वह कभी छुट्टी न करता था, पर कभी-कभार अपनी जगह से गायब हो जाता। ऐसा उस समय होता था, जब उसकी टाँग की पीड़ा बहुत बढ़ जाती। वह इस स्थिति को कुछ इस प्रकार बयान करता, ‘आज तो तकलीफों का पहाड़ आ पड़ा है।’

बीमार पड़ता तो उसके जिम्मे खर्च बढ़ जाते। फिर जो काम पर लौटता तो पहले से अधिक परिश्रम करता। अच्छे बीजों की खोज में दूर-दूर निकल जाता और रात गए तक फुटपाथ पर खड़ा रहता ताकि बिक्री अधिक हो और छुट्टियों की क्षतिपूर्ति हो सके।

उसके लिए खुशी का अवसर केवल एक था, और वह था क्रिसमस का त्योहार। कारण यह था कि क्रिसमस पर लोग अपने पालतू पक्षियों पर कुछ अधिक ही कृपालु हो जाते थे और उसकी खूब बिक्री होती थी। बड़े दिन का कोई विशेष ग्राहक उसे छह पेंस की रकम भी दे डालता। फिर भी वह बात अधिक सुखद न थी, क्योंकि आर्थिक परिस्थितियाँ अच्छी हों या बुरी, इन्हीं दिनों हर साल उसे दमे का रोग दबोच लेता था। रोग के दौरे के बाद उसका चेहरा और पीला पड़ जाता और नीली आँखों में अनिद्रा की धुंध दिखाई देती। यों लगता जैसे वह किसी ऐसे मछेरे का भूत हो, जो समुद्र में डूब गया हो। ऐसे समय में प्रातः काल के धुंधले प्रकाश में वह अधपके ग्रोंडसील के बीज टटोलता, जिन्हें पक्षी शौक से खा सकें, तो उसके पीले खुरदरे हाथ काँप-काँप जाते थे।

वह प्रायः कहा करता था, ‘आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि शुरू में इस मामूली-से काम के लिए अपने-आपको तैयार करने में कितनी कठिनाई पेश आई। उन दिनों टाँग का जख्म नया था और कई बार चलते हुए यों महसूस होता था, जैसे मेरी टाँग पीछे रह जाएगी। मैं इतना दुर्बल था कि कीचड़ में उसे घसीटना संसार का सबसे कठिन काम नजर आता। ऊपर से पत्नी की बीमारी ने परेशान कर रखा था। उसे गठिया है। देखा आपने, मेरा जीवन सिर से पाँव तक दुःखों से भरा है।’

यहाँ वह एक अविश्वसनीय अंदाज में मुस्कराता और फिर अपनी इस टाँग की ओर देखते हुए, जो पीछे घिसट रही होती थी, गर्वीले ढंग से कहता, ‘आप देखते हैं न! अब इसमें कोई जान नहीं रही। इसका मांस तो मर चुका है।’

उसे देखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह जानना बहुत कठिन था कि आखिर इस गरीब अपंग को जीवन से क्या दिलचस्पी थी। स्थायी असहायता, दुःख और पीड़ा के स्याह परदों के नीचे वह थके-हारे अपने जर्जर पंख हिलाता रहता था। जीवन के प्रकाश को देखना बहुत कठिन था। इस व्यक्ति का जीवन से चिपटे रहना बिल्कुल अस्वाभाविक दिखाई देता था। भविष्य में उसके लिए आशा की कोई किरण न थी और यह बात तय थी कि भविष्य उसके वर्तमान से कहीं अधिक खराब और खस्ता होगा। रही अगली दुनिया, तो वह उसके बारे में बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से कहता, ‘मेरी पत्नी का विचार है कि दूसरी दुनिया इस दुनिया से बहरहाल बुरी नहीं हो सकती और यदि वस्तुतः इस जीवन के बाद दूसरा जीवन है तो मैं समझता हूँ कि उसकी बात सही है।’

फिर भी एक बात विश्वास से कही जा सकती है कि उसके मस्तिष्क में कभी यह विचार न आया था कि वह ऐसा जीवन क्यों व्यतीत कर रहा है। क्यों कष्ट उठा रहा है। यों अनुभव होता था, जैसे अपने कष्टों के बारे में सोचकर और अपनी सहनशीलता की इन कष्टों से तुलना करके इसे कोई आंतरिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। यह बात सुखदायक बहुत थी। वह मानवता के भविष्य का ज्ञाता था। दर्पण था। और ऐसी आशा थी, जो और कहीं दिखाई नहीं देती।

इस भरी-पूरी दुनिया में कोलाहल से आबाद सड़क के किनारे टोकरी के पास छड़ी के सहारे वह अपना निढाल, किंतु संकल्पपूर्ण चेहरा लिए इस महान् और असाधारण मानवीय गुण की एक जर्जर प्रतिमा की तरह खड़ा है, जिससे अधिक आशापूर्ण और उत्साहजनक भावना दुनिया में कोई नहीं। वह आशा के बिना प्रयत्न का एक जीवंत उदाहरण है। जीता-जागता प्रतिबिंब है। 

बड़की बहूबड़की बहू

प्रख्यात लेखक कमलाकांत त्रिपाठी के नए कहानी संग्रह ‘बड़की बहू’ में से...

मुगल के साथ एक दिन

महकमे का मुगल था वह। साल भर पहले उसका तबादला हो गया था पर उसका वजूद अभी भी वहाँ गूँज रहा था। शहर की हवा में मुगल का नाम अब भी लहराता था। उसकी जड़ों के रेशे शहर की रगों में दूर-दूर तक फैले थे और महकमे से जुड़ा शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसे वे कहीं न कहीं से छू न गए हों। वैसे तैनाती के हर शहर में उसके साथ ऐसा कुछ होता था पर इस शहर पर उसका रंग कुछ ज़्यादा ही चढ़ा था। लगता था, वह शुरू से इस शहर के लिए और यह शहर उसके लिए बना था।

उन दिनों मुगल आया हुआ था। महीने-दो महीने में उसके चक्कर लग जाते थे। उसने शहर में बहुत सारे बीज बो रखे थे, बहुत सारे पौधे रोप रखे थे। वे अब भी लहलहा रहे थे। उनसे अपने को एकदम से काट लेना संभव नहीं रहा होगा। वह जहाँ भी गया, शहर में उसकी मौजूदगी बज रही थी, जैसे लोगों के ज़ेहन में उसकी अदृश्य छाया डोलती हो। लोग उससे या तो मिल चुके थे या मिलने की तदबीर में थे।

उस समय वह दफ्तर के पासवाले रेस्तराँ में कुछ लोगों के साथ लंच लेने बैठा था। तभी मुगल अपने हुजूम के साथ अचानक वहाँ आ पहुँचा। उसके आने की धमक से पूरा रेस्तराँ हिल उठा। जैसे गर्मजोशी का झोंका-सा आया हो। उसके चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्कान थी जो लोगों को एक साथ आश्वस्त और निरस्त्र कर देती है। दो-एक हलके, मज़ाकिया जुमलों से ही उसने वर्षों की दूरी काटकर उसे आत्मीय ऊष्मा के घेरे में ले लिया। उसके साथ होने मात्र से अजीब निद्वंद्वात आ जाती थी, सब कुछ अनुकूल और ग्राह्म लगने लगता था।

वे उत्तेजित उत्सुकता में उसके गिर्द सिमट आए। आनन-फानन में एक बड़ी सी मेज़ ख़ाली कर उसकी जमात के बैठने की व्यवस्था कर दी गई।

उसके एक चेले ने सबसे पूछ-पूछकर ऑर्डर करने का दायित्व सँभाल लिया। बीच में उसे रोककर उसने रेस्तराँ के मालिक को बुलवाया। अपने ख़ास याराना लहज़े में उसका हालचाल पूछा। मालिक बराबर अंग्रेजी में बोलता रहा, लेकिन मुगल की अधिकारपूर्ण, दमदार हिंदी और पुरलुत्फ अवधी टोन के सामने उसकी निर्जीव, कारोबारी अंग्रेजी मिमियाती हुई सी लग रही थी।

“यार, तुम्हारा तो बार भी खुलनेवाला था। क्या हुआ उसका?”

“जल्दी ही हो जाएगा, सर। बस थोड़ी सी कसर है। अब आप आ गए. हैं तो…”

“फ़िक्र न करो…कल फ़ोन करके याद दिला देना।” मुगल का साम्राज्य एक महकमे तक सीमित नहीं था। उसके जन-संपर्क का दायरा बहुत विस्तीर्ण और बहुत ऊँचाई तक फैला था और काम के हर महकमे में उसके उपकृत बैठे हुए थे।

“क्या लेंगे सर? आपके लिए क्‍या बंदिश!…जो कहें…”

“बोलो।” उसकी ओर मुख़ातिब मुगल की निगाह में मस्ती-घुली चुनौती थी।

“ अभी…ऑफिस लौटना है।” वह सिटपिटाया।

“हँह…गोली मारो ऑफिस को आज।” उसने बेफिक्री के अंदाज़ में कंधे उचकाए।

“मेरे और इसके लिए वोदका…आप लोग अपना-अपना बता दीजिए।”

फिर उसकी ओर मुख़ातिब हुआ तो स्वर में स्नेहिल गंभीरता उतर आई।

“अभी तो आए हो। थोड़ा रिलैक्स हो लो। घूम-फिर लो। शहर को “फील’ करो…बाद में तो मुझे मालूम है तुम काम में पिल पड़ोगे…हाँ, तुम्हारा बॉस कौन हे?”

जवाब उसके एह्ः चेले ने दिया।

“परेशान न हो, मैं बोल दूँगा। ध्यान रखेगा। यार है अपना।”

एक लार्ज। फिर दूसरा लार्ज। उसके ख़त्म होते-होते खाना लग गया। खाने के साथ मुगल ने तीसरा लार्ज लिया। बहुत ना-नुकर के बावजूद उसे भी एक सस्‍्मॉल और लेना पड़ा। आसपास की मेज़ों पर बैठे लोग इस अप्रत्याशित जश्न को ईर्ष्या-मिली उत्सुकता से देख रहे थे। महिलाओं के चेहरे पर किंचित्‌ असुरक्षाजनित असुविधा का भी भाव था। 

विशिष्ट होने की आत्मतुष्टि और अवांछित सुविधा के अपराधबोध के घालमेल से सुरूर की पहली उठान शुरू हुई थी। फिर तो धीरे-धीरे सब कुछ बेमानी हो गया था और वे जैसे लहराते समुद्र पर झूलती नावों में सवार हो गए थे। खाना ख़त्म होते-होते उनकी वाचालता बेलगाम होने लगी थी।

“शिंदे…ओ शिंदे?”

“जी सर?”

“देख, यह अपना ख़ास आदमी है। छोटा भाई जैसा। नया-नया आया है यहाँ। कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए इसे।”

“नहीं सर, मेरे रहते… ”

“और देख, यह बहुत तेजू ख़ाँ टाइप का अफसर है, पर आदमी अच्छा है,” फिर उसने हलके से एक आँख दबाई, “और रसिंक भी।”

“जी…जी सर।” हलके संकेत की स्वीकृति में भी शिंदे के चेहरे की गंभीर नम्रता अभेद्य थी। माहौल की बेतकल्लुफ उत्फुल्लता में भी वह अदब का तक़ाज्ञा नहीं भूला था।

शिंदे महकमे में क्लियरिंग एजेंट का काम करता था और छोटे से लेकर बड़े तमाम अफसरों का विश्वासपात्र था। शहर के सबसे ख़र्चीले इलाके में उसका शानदार फ्लैट था, कई एयरकंडीशंड (उस समय) गाड़ियाँ थीं जो ज़्यादातर अफसरों के सैर-सपाटे के काम आती थीं। लेकिन अफ़सरों की संगत में वह चूजे-जैसा दिखता था। सेवाभाव से नंत, हर काम के लिए रोबोट की तरह तत्पर। उसके धंधे में सफलता का यह पुराना आज्ञमाया हुआ नुस्खा था।

रेस्तराँ से निकले तो मुगल ने शिंदे की एयरकंडीशंड गाड़ी छोड़ दी। जमात से भी माफी माँग ली।

“तुम लोग अब चलो…मुझे कुछ ख़रीदारी करनी है। वहाँ से सीधे होटल आ जाऊँगा,” मुगल ने कहा।

“गाड़ी ले जाइए सर,” शिंदे ने कहा।

“नहीं, वहाँ पार्किंग में दिक्क़त होगी। मैं टैक्सी ले लूँगा।”

शिंदे ने आगे आग्रह नहीं किया, जैसे दोनों में गोपन किस्म की अंदरूनी समझ हो।

वह भी जमात के साथ चलने लगा तो मुगल ने उसका हाथ पकड़ लिया।

“तुम कहाँ?”

वह असमंजस में खड़ा हो गया।

“तुम्हारे लिए ही तो मैंने सबसे जान छुडाई है।” मुगल उसके कान में फुसफुसाया।

वह टैक्सी में बैठा तो मुगल पर अपने एकछत्र आधिपत्य के मुक्त आनंद से अभिभूत था।

टैक्सी में बैठते ही मुगल ने आदत के अनुसार ड्राइवर से अपनत्व-भरी बातें शुरू कर दीं। वह पड़ोस के ज़िले का निकला। पहले तो वह थोड़ा खिंचा-खिंचा रहा लेकिन मुगल के स्वर की आत्मीय मिठास से प्रोत्साहित होकर अपने गाँव के आसपास की मशहूर जगहों और खेती-गृहस्थी की आम समस्याओं पर बातें करने लगा। ड्राइवर की ग्राम्य संवेदना छू लेने के बाद मुगल ने बगल में बैठे उसकी ओर रुख़ किया।

“जब भी बंबई आता हूँ और टैक्सी में बैठता हूँ, काका की बहुत याद आती है। सत्रह साल के थे जब गरीबी से आजिज्ञ आकर घर से भाग आए थे। क्या-क्या नहीं किया यहाँ, कहाँ-कहाँ नहीं भटके। बाद में टैक्सी चलानी सीखी, लाइसेंस निकलवाया। पहले सिर्फ़ रात की पाली में चलाने को मिलती थी। फिर दिन में चलाने लगे। फिर तो पूरी ज़िंदगी उसी में गुज़ार दी। अंत तक उनकी साध रह ही गई कि उनकी अपनी टैक्सी होती…उनके तो बाल-बच्चे थे नहीं-शादी ही नहीं हुई थी। हमीं लोगों को पालकर बड़ा करने, पढ़ाने-लिखाने में अपने को होम कर दिया…वे भागकर बंबई न आए होते तो मेरा क्या होता, मैं आज कहाँ होता!”…..

Kamalkant Tripathi

कमलाकांत त्रिपाठी

दस प्रतिनिधि कहानियाँ: हिमांशु जोशीदस प्रतिनिधि कहानियाँ: हिमांशु जोशी

सजा

वह फिर आई थी आज।

कल ही तो तार मिला था। तार देखते ही क्षण-भर वह हतप्रभ-सी खड़ी रह गई थी। अपनी आँखों पर विश्वास ही न हुआ-जो कुछ लिखा गया है, क्या वह सच है ?

गुलाबी रंग का कागज मरते हुए पक्षी के डैने की तरह उसकी कॉपती अँगुलियों में थरथरा रहा था। होंठ खुले थे। आँखें पत्थर की तरह ठोस-निश्चल!

“क्या हुआ दीदी ?” श्रुति भागती हुई आई, पर भावना जैसे शून्य में कहीं खो गई थी।

धम्म-से पलंग की पाटी पर बैठ गई-निचला होंठ दाँतों के बीच दबकर नीला हो आया था।

स्थिति की भयावहता देखकर श्रुति को साहस न हुआ कि आगे बढ़कर कुछ और पूछे। वह जड़वत्‌ खड़ी रही-क्षण-भर।

भावना न जाने कब तक यों ही पाषाण-शिला-सी पलंग पर बैठी रही।

“क्या हुआ दीदी ?”

“कुछ नहीं…।”

“किसका तार है ?”

कोई उत्तर नहीं दिया भावना ने।

“मामाजी का ?”

“नहीं ।”

“फिर…?”

भावना ने इस ‘फिर’ का उत्तर देने की भी आवश्यकता नहीं समझी। वह वैसी ही लेटी रही।

देर तक कमरे में असह्य सन्नाटा रहा। अंत में चारों ओर जमी बर्फ की विशाल चट्टान को तोड़ती, किसी तरह भावना बोली, “सुरु, मेरी अटैची में कपड़े रख दे। आज ही शाम की गाड़ी से चली जाऊँगी।…।”

“कहाँ दीदी—?”

“अरे, अभी बतलाया नहीं-दिल्ली जा रही हूँ।…हमारी हैड मिस्ट्रेस को इन्फॉर्म कर देना ।”

भावना की दृष्टि अब बार-बार घड़ी के डायल की ओर जा रही थी। सवा नौ बजे गाड़ी जाएगी, इस समय आठ पच्चीस हैं।

“रात को अकेली न रहना सुरु ! जमाना बुरा है। सुक्को मौसी को जरूर बुला लेना।”

“…|”

“खाना खा लेना। मुझे भूख नहीं…।”

“…|”

“तू अपने एग्जाम की तैयारी क्‍यों नहीं करती ? फाइनल ईयर है। अरी, खड़ी-खड़ी मुँह क्या देख रही है ?” इस बार तनिक तुनककर भावना ने कहा तो श्रुति सहम-सी गई। डरती-डरती बोली, “बिना खाना खाए ही चली जाओगी दीदी !”

“हाँ—कह तो दिया !”

“कुछ बाँध दूँ?”

“नहीं !!!”

यों ही हड़बड़ी में भावना चली गई तो सब अजीब-अजीब-सा लगा-एक विचित्र-सी पहेली।

दीदी ने यह भी नहीं बतलाया कि तार किसका था ? क्‍या लिखा था?

सुक्को मौसी बड़े कमरे में खराटे भरती हुई सो गईं, पर श्रुति भावना के कमरे में बैठी देर तक पढ़ती रही।

तभी पन्ने पलटते-पलटते पता नहीं किस तरह पेन जमीन पर गिर पड़ा । उसे उठाने के लिए श्रुति झुकी ही थी कि नीचे, वही गुलाबी रंग का कागज, मुड़ा-तुड़ा पड़ा था।

बड़ी सावधानी से फटे कागज की सलवटें ठीक करके पढ़ने का प्रयास किया। लिखा था-‘रतन एक्सपायर्ड ! नीचे दस्तखतों की जगह किन्हीं ‘विनोद’ नामक सज्जन का नाम अंकित था !

—तो जीजाजी चल बसे !

श्रुति बुदबुदाई।

फिर लाख कोशिश करने के बाद भी पढ़ने में मन नहीं लगा। दीदी की आंतरिक व्यथा साकार होकर आँखों के आगे घूमती रही।

सारी रात पड़ी-पड़ी सोचती रही-जीवन-भर दीदी को क्‍या मिला ? जीजाजी द्वारा प्रताड़ित, अपमानित होकर, घर से निकाली जाने के पश्चात्, उन्होंने कितना कुछ नहीं सहा !

उसे याद आया-वह बालकनी में बैठी, जाड़ों की पीली, पथराई धूप में गीले बाल सुखा रही थी, तभी किसी ने बतलाया, “सुनो बिटिया, रतन ने दूसरी शादी कर लई है।”

दीदी ने सुने का अनसुना कर दिया, जैसे पहले से सब जानती हों । उन्हें तनिक भी अचरज न हुआ…।

दीदी चाहतीं तो क्या-क्या नहीं कर सकती थीं ! कानून साथ था। बड़े मौसाजी जाने-माने वकील। किंतु न जाने क्या सोचकर वह होंठ सिए चुप बैठी रहीं।

—प्रारब्ध में इत्ता ही सुख था तो अधिक कहाँ से आता ! दीदी उड़ी-उड़ी-सी कभी दुहरा दिया करती थीं।

बड़े चाचाजी, मामाजी, बुआजी-सबने कहा-दूसरी शादी करने के लिए, पर यहाँ भी भावना दीदी पहेली बनी चुपचाप बैठी रहीं।

कितना सहा दीदी ने ! कितना ! कितना-श्रुति बिछौने में मुँह छिपाकर सिसकने लगी।

“कौन, भावना बहू ! कब आई ?” ससुराल के रिश्ते की किन्हीं वृद्धा ने आँगन में पाँव धरते ही पूछा।

“अभी माँजी…!”

“तार दिया था-बिन्नू ने ?”

‘‘जी-हाँ!’’

अटैची थामे भावना क्षण-भर वैसी ही खड़ी रही-दरवाजे के पल्लू के सहारे…। फिर चुपचाप भीतर चली गई।

घर में कुहराम मचा था, परंतु भावना गूँगी, बहरी-सी चुप बैठी रही। न रोई, न चिल्लाई। मूक दर्शक की तरह यंत्रवत्‌ सब देखती रही—

वह औरत रो रही थी-जिसे अब रतन की पली कहते हैं, रतन जिसे ब्याहकर लाया था, जिसकी सूनी माँग में अब सूखे घाव की दरार-सी पड़ गई है।

भावना देखती रही–

दुबला-पतला शरीर !

पीली देह !

इसी के प्यार में पागल होकर रतन ने उसे कितनी यंत्रणाएँ दी थीं ! क्या-क्या नहीं कहा था ! क्या-क्या नहीं किया था ! जब सब असह्य हो गया तो एक दिन घर से भी निकाल बाहर किया था। पापा नहीं रहे, तो फिर किसी का भी भय न रहा…!

दो बच्चे बाहर खड़े थे। एक नन्हा-सा, किसी की गोदी में खरगोश की तरह दुबका बैठा था। अपनी माँ को रोते देखता तो स्वयं भी मुँह फाड़कर रोने लगता …।

यह वही घर था, जहाँ भावना एक दिन दुल्हन बनकर आई थी। पापा कहते थे-अपनी भावना को हमने चंदा और करुणा से भी अच्छा घर दिया है। खूब सुख से रहेगी…राज रचेगी…

कैसा राज रचाया ! कितने सुख से बिताए चार साल !-भावना का हृदय यह सोचने मात्र से सिहर उठा।

ढेर सारे गंदे कपड़े, जिन्हें यहाँ बिस्तर की संज्ञा दी जा रही है, एक ओर पड़े हैं। पलंग टूटा हुआ है। मेज के एक पाँव के नीचे ईंट का आधा टुकड़ा पड़ा है।

“रतन की बीमारी ने हमें कहीं का भी नहीं रख छोड़ा । बर्तन-भाँड़े तक बिक गए ।” वृद्धा सास माँ कपाल पर हाथ रखे, अपने फूटे करम को रो रही थीं। किसी से कह रही थीं, “अंत में भाई तक मुँह बिरा गए मौसी ! मरते समय मेरे रत्तू के घर कफन तक के लिए पैसे नहीं थे। |”

भावना सुनती रही।

एक-दो दिन तक चुप देखती रही।

तीसरे दिन अपने घर लौटते समय जब रहा न गया तो बूढ़ी सास को एकांत में ले जाकर बोली, “ये कुछ रुपए हैं माँजी ! क्रिया-कर्म में लगा देना। बच्चों को दुःख न देना। विनोद कह रहे थे-बच्चों का स्कूल जाना छुड़वा दिया है। उन्हें फिर स्कूल भिजवा देना ।…जो कुछ बन सकेगा, मैं करूँगी… ।”

“बहू, यह तू क्या कह रही है ? तेरे साथ उसने जो कुछ किया, उसके बाद तो…”

“जो कुछ उन्होंने किया, उनके साथ ही चला गया माँजी ! पर इन अबोध बच्चों का क्या दोष ?”

साथ लाई दो-तीन साड़ियाँ भावना छोड़ गई। बच्चों के लिए कुछ रुपए भी। रिक्शे पर बैठती-बैठती बोली, “माँजी, कभी उधर चली आना। मन बहल जाएगा। हमें भी खुशी होगी। माँ तो बचपन में ही हमें छोड़कर चल बसी थीं। जब से होश सँभाला आपको ही माँ की ठौर पर पाया।”

“बहू, अब तू इत्ता दुःख न दे ! हमारे किए की इत्ती बड़ी सजा नहीं !” बूढ़ी सास का अब तक थमा बाँध टूट बहा, “उसके ऐसे धन्‍न भाग कहाँ थे !…अपने किए पापों की सारी सजा भुगत गया पगला…!”

रिक्शे पर टूटी टहनी की तरह निढाल पड़ी भावना बैठी रही । माँग का सिंदूर न जाने कब, कैसे पुँछ गया था। उसका अब कोई निशान न था, पर हाँ, नौ साल लंबी थकान उसके मुरझाए मुखड़े पर आज अवश्य उभर आई थी।

देश के शीश : गुरु तेग बहादुरदेश के शीश : गुरु तेग बहादुर

सुहृद संवाद

भारत एक महानू राष्ट्र है जिसकी स्वर्णिम गाथा संपूर्ण मानव सभ्यता के गौरवशाली पक्ष को प्रकट करने वाली है। इस राष्ट्र का उद्भव धर्म, सत्य और निष्ठा के यज्ञ कुंड से हुआ। यहां की हवा में आदिकाल से ही प्रेम, शांति और सहयोग की मन को बांधने वाली सुगंध का साम्राज्य रहा है। सच के लिए सर्वाधिक उर्वरा भूमि भारत की सिद्ध हुई है। सच की समझ और सच के लिए प्रतिबद्धता का गुणसूत्र इस राष्ट्र की आत्मा है जिससे अनेक धर्म और विचार समय-समय पर पुष्पित, पल्‍लवित हुए। सन्‌ 469 में अवतरित हो गुरु नानक साहिब ने सच के लिए सर्वस्व समर्पण की राह खोली। इससे धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक त्रास से निष्प्राण हो चुकी भावनाओं को स्वर मिला। हताश हो चुकी मनःस्थिति को तथा आशाओं को. नए पंख लगे। लोगों के मन संयम, सहज, संतोष, दया, प्रेम और बंधुत्व के दीपों से जगमग हो उठे। अधर्म और निर्दयता के सामने सच को डटकर खडे होने का बल मिला। देश की स्थितियां त्वरित गति से अवसान की ओर जा रही थीं, जब औरंगजेब दिल्‍ली के तख्त पर बैठा। मुगल शासन का चेहरा क्रूरतम होने लगा। इधर गुरु तेग बहादुर जी नौवें सिख गुरु के रूप में गुरुगद्दी पर आसीन हो चुके थे। वे समझ चुके थे कि अब अतिरिक्त ऊर्जा और विस्तारित संकल्प की आवश्यकता होगी। उन्होंने द्रुत गति से पंजाब से उत्तर प्रदेश, बिहार होते हुए बंगाल, आसाम तक यात्राएं कर व्यापक धार्मिक चेतना जगाई। गुरु तेग बहादुर साहिब जानते थे कि धर्मांधवा और कट्टरता को धार्मिक सहिष्णुता और उदारता की शक्ति से ही पराजित किया जा सकता है। यह शक्ति गुरु तेग बहादुर जी को उनकी परमात्मा भक्ति और सदगुणों के दृढ़ संकल्प से प्राप्त हुई थी। वे परिवार में रहते हुए भी परमात्मा के प्रेम में रमे हुए थे। संसार में विचरते हुए भी वे अध्यात्म लोक में निवास कर रहे थे। गुरु तेग बहादुर जी परम आत्म अवस्था में परमात्मा का रूप हो चुके थे। उन्होंने संसार को भी विकार, माया का आकर्षण त्याग, सांसारिक सुखों को मिथ्या मान परमात्मा की शरण लेने को प्रेरित किया-‘रामु सिमरि रामु सिमरि इहै तेरे काजि है।’

गुरु तेग बहादुर जी में धर्म बल के रूप में प्रखर हो रहा था। वह निर्बल का बल था। उनकी वाणी और आचार से वह कल्पवृक्ष प्रकट हुआ जो समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करने वाला था। यह समय की मांग थी। परमात्मा की लीला ही ऐसी है। वह यदि अधर्म को अवसर देता है तो धर्म को भी सशक्त करता है। अधर्म यदि मनुष्य की प्रताड़ना का कारण बनता है तो धर्म उस दुःख से उबारने का वर। यह क्रम आदिकाल से ही चल रहा है। परमात्मा ने सारी सृष्टि रची है। वह सभी जीवों का पालक, रक्षक, सखा और दाता है। परमात्मा पल-पल उनकी चिता करता है, उसकी महिमा वही जानता है। वह कौतुक करता रहता है। सत्य और असत्य का दूंद्र भी उसी का रचा हुआ है। असत्य प्राय: बलशाली होता हुआ दिखा है किंतु कभी विजयी नहीं हो सका। परमात्मा सदैव अपने भक्तों की लाज रखता आया है। तभी उसे भक्त वत्सल भी कहा जाता है। यह अवसर पुनः आ गया था।

औरंगजेब मर्यादा की सभी सीमाएं ध्वस्त कर अपनी धार्मिक कट्टरता की अंध नीतियां प्रभावी करना चाहता था। उसकी क्रूरता का सर्वाधिक प्रभाव कश्मीर के हिंदुओं पर पड़ रहा था। त्राहि-त्राहि कर रहे ब्राह्मणों को कोई ठौर नहीं मिला तो आनंदपुर साहिब गुरु तेग बहादुर साहिब की शरण में आए। गुरु तेग बहादुर साहिब की प्रखर अंतर चेतना और सच के लिए उनकी अप्रतिम प्रतिबद्धता ही कश्मीरी ब्राह्मणों के लिए आशा का एकमात्र स्रोत बचा था। गुरु तेग बहादुर जी के रहते राष्ट्र और सच कैसे पराजित हो सकते थे। विदेशी आक्रांता औरंगजेब के अहंकार का उसकी राजधानी में ही अपने शीश के बलिदान के प्रचंड प्रहार से गुरु तेग बहादुर साहिब ने मर्दन ही नहीं किया, उसके राज्य की चूलें भी हिला दीं। राष्ट्र की अस्मिता पर संकट के जो घने बादल घिर आए थे उनके छंटने की कोई आशा नहीं थी। गुरु तेग बहादुर साहिब के बलिदान से राष्ट्र का मस्तक पुनः विश्वास से दमकने लगा। वे सांसारिक लोग जो इस महान्‌ बलिदान के मर्म से अनभिज्ञ थे भले ही शोकग्रस्त हो गए किंतु जिन्हें परमात्मा की लीला का तनिक भी बोध था वह मन से जय-जयकार करने लगे। निर्दयता का चक्र थम गया। गुरु तेग बहादुर साहिब इतिहास का एक ऐसा रत्नजड्त पृष्ठ लिख गए जिसकी आभा हतप्रभ करने वाली भी है और आनंदित करने वाली भी। वे आनंदपुर साहिब से स्वयं घोड़े पर सवार हो दिल्‍ली आए थे। वास्तव में यह बलिदान से अधिक धर्मयुद्ध था। जिस औरंगजेब की ताकत से पूरा देश कांप रहा था, निर्भयता से उसके आगे सिर ऊंचा कर आ खडे होना, उसकी ताकत, उसके अहंकार, उसके पुरुषत्व को पूरी तरह नकार देना था। धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए यह आवश्यक था। अधर्म और निर्दयता कैसा भी रूप धारण कर लें उनकी क्षमता धर्मपालकों के तन तक आकर बाधित हो जाती है। धर्मपालकों के मन का क्षय नहीं कर सकती। 

गुरु तेग बहादुर साहिब ने संसार को आनंद की ऐसी भावना दी जो अमिट है। सोचा भी नहीं गया था कि सहज, संयम और विश्वास ऐसा ‘फलीभूत होता है। गुरु साहिब के जीवन ने जहां लाखों लोगों का उद्धार किया, उनके बलिदान ने करोड़ों लोगों को स्वाभिमान और सम्मान की खुली सांसें दीं। आने वाली पीढ़ियां शाप मुक्त हो गईं। उन्होंने नया नगर बसाकर उसका नाम आनंदपुर साहिब रखा था। उनके त्याग से पूरा भारत ही आनंदपुर हो गया। पंडित कृपाराम और उनके साथ आए ब्राह्मणों ने गुरु तेग बहादुर साहिब की शरण लेकर तिलक और जनेऊ हेतु संदा के लिए अमरत्व प्राप्त कर लिया। ये भारत की अस्मिता के प्रतीक थे और गुरु तेग बहादुर जी उनके रक्षक बने। कश्मीर के ब्राह्मण उनकी शरण में आए थे। शरणागत का मान उनका स्वभाव था। फिर भी राष्ट्र के लिए तो यह ऋण ही है। यह ऐसा ऋण है जिसे कभी उतारा नहीं जा सकता। राष्ट्र में धर्म और सच सदा अजेय और अभय रहे, इसकी कामना तो की जानी चाहिए।

गुरु तेग बहादुर साहिब के जीवन और उपदेशों को शब्दों में उतारना संभव नहीं है। जितना उनके निकट जाते जाएं शब्द उतने ही कम पड़ते जाएंगे। वे धर्म का बल हैं और निर्भय धर्म हैं। ये दो सूत्र ही उनका परिचय हैं किंतु इनका विस्तार अनंत है, अनंत है। उनकी महिमा अनंत है। गुरु तेग बहादुर साहिब का अवतार पुन: नहीं हो सकता। वे मानव समाज को, इस राष्ट्र को इतना दे गए हैं कि उसके फल हमें तब तक मिलते रहेंगे, जब तक यह सृष्टि रहेगी। गुरु तेग बहादुर जी की महिमा का सदैव गुणंगान होता रहेगा। आइए उनके जीवन और वाणी में प्रकाशित हो रही परमात्मा की मेहर का दर्शन करें। उनके अंतर के जोरावर को नमन करें। उनके निकट ही होने की सुहावी अनुभूति करें। यह संभव हो सका है किताबघर प्रकाशन, नई दिल्‍ली के परम श्रद्धेय श्रीयुत सत्यत्रत जी की पुनः-पुनः कीं जाने वाली असीम कृपा से। वे दयालु और उदारमना हैं। कभी भी निराश नहीं करते। उनकी अनुकंपा बनी रहे यह प्रार्थना सदैव परमात्मा से है। मेरा कोई दावा नहीं ज्ञान का। करबद्ध प्रार्थना है कि त्रुटियां मिलें तो क्षमा करने का अनुग्रह करें।

यह पुस्तक आवर सहित अपने पड़वादा सरवार हरी सिंह जी और बावा सरवार लाथ सिंह जी को समर्पित है, जिन्होंने वेश-विभाजन के समय पाकिस्तान में वंगाइयों का साहसपूर्वक सामना करते अपने ग्राणों का अन्य परिवारजनों सहित उत्सर्ग कर विया। यह संभवत: गुरु तेग बहादुर जी के मार्ग पर चलने का एक प्रयास था। भारत एक अद्भुत भूभाग है। आइए इसे आनंदलोक बनाएं।

-डॉ. सत्येन्द्र पाल सिंह