देश-विदेश की लोककथाएं


काठ के जूते

बहुत समय पहले की बात है। जापान में निप्पन नाम का एक छोटा-सा राज्य था। वहां के राजा का नाम मासामू था। एक छोटे से राज्य का राजा होने पर भी उसका प्रताप बहुत था। जापान के सम्राट्‌ मिकाडो पर भी उसका बहुत प्रभाव था।

मासामू अत्याचारी शासक था। वह अपनी प्रजा को अनेक प्रकार से परेशान किया करता था। इसलिए सब लोग उससे घबराते थे। निप्पन में ठंड बहुत भयंकर पड़ती थी। जाड़े की ऋतु में पानी जमकर बर्फ हो जाता था।

एक बार जाड़े की ऋतु में सवेरे उठने पर मासामू ने देखा कि समस्त धरती बर्फ से ढकी हुई है। उसने सोचा-‘प्रकृति के इस रूप को अच्छी तरह देखने के लिए नगर के बाहर बने हुए आवास में चलना चाहिए | यह सोचकर वह अपने मित्रों और सेवकों को साथ लेकर उस आवास में पहुंचा ।

जिन दिनों की यह कहानी है, उन दिनों जापान के लोग चमड़े के जूते नहीं पहनते थे। वे काठ के जूते पहनते थे। इन्हें ‘गेटा’ नाम से पुकारा जाता था। जापान के लोग गेटा पहनकर कमरे के अंदर प्रवेश नहीं करते थे। मासामू और उसके साथी भी अपने गेटे बाहर निकालकर ही अंदर गए। जिस नौकर पर जूतों की देख-रेख का भार था, उसका नाम हेइशिरो था। हेइशिरो ने सोचा-“मासामू जब बाहर आएंगे तो भीगे हुए गेटे पहनने में उन्हें कष्ट होगा! उसने जूतों को अपने कपड़ों के अंदर छिपा लिया ताकि वे भीग न सकें।

मासामू जब बाहर आया तो हेइशिरो ने उसके गेटे’ बाहर निकालकर रख दिए। मासामू ने जब गेटे पहने तो वह अवाक्‌ रह गया। उसने सोचा-“जब सारी धरती बर्फ से ढक गई है, तो मेरे गेटे बिना भीगे कैसे रह गए। हो न हो, यह बदमाश नौकर मेरे जूतों पर बैठा आराम कर रहा होगा। मैं अभी इसे इस बात का मजा चखाता हूं।’ यह सोचकर मासामू ने गेटे हाथ में लेकर धमाधम हेइशिरो के सिर में मारना शुरू किया। हेइशिरों बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।

हेइशिरो वहीं पर बेहोश पड़ा रहा। दूसरे दिन जब उसको होश आया तो उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। उसके सिर से आग की लपटें-सी निकल रही थीं। उसने निश्चय किया–‘मैं इसका प्रतिशोध मासामू से अवश्य लेकर छोड़ंगा ।

बदला लेने के कई उपाय उसके दिमाग में आए, किंतु उनमें से एक भी उसको पसंद नहीं आया। सोचते-सोचते उसके दिमाग में एक विचार आया। उसने सोचा-“राजा-महाराजा साधु-संन्यासियों की बड़ी इज्जत करते हैं। यदि मैं भी एक प्रसिद्ध साधु बन जाऊं तो जापान का सम्राट्‌ मेरा सम्मान करेगा। तब मैं उससे कहकर मासामू को दंड दिलवाऊंगा ! यह सोचकर वह एक बौद्ध मठ में गया। वहीं दीक्षा लेकर वह बौद्ध भिक्षु बन गया। उसके बाद उसने एकाग्रचित्त होकर भगवान्‌ बुद्ध का ध्यान करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वह भी एक प्रसिद्ध साधु बन गया। जापान के सम्राट्‌ मिकाडो से अभी उसका कोई परिचय नहीं हुआ था और उसके बिना उसका उद्देश्य पूरा कहां होता! उसने और प्रयास किया।

होते-होते वह एक बौद्ध भिक्षु के रूप में विख्यात हो गया। बहुत समय तक भ्रमण करने के बाद वह एक मठ में स्थायी रूप से रहने लगा। वह हमेशा अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए चिंतित रहता था। उसको पता लगा कि मासामू एक बड़े राज्य का राजा बन गया है और उसका प्रताप पहले से ज्यादा बढ़ गया है। फिर भी उसने आशा नहीं छोड़ी ।

कुछ दिन बाद ही उसे इसका अवसर मिल गया। जापान का सम्राट्‌ मिकाडो बीमार पड़ गया। बहुत प्रकार से चिकित्सा हुई, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। लोगों ने सोचा कि सम्राट्‌ के ऊपर भूत-प्रेतों की दृष्टि पड़ी है। इसमें डॉक्टर क्या करेंगे? साधु-संन्यासियों को ढूंढ़ा गया। बहुत से साधु-संन्यासी राजा को देखने आए, लेकिन किसी से उसका उपचार नहीं हुआ। तब राजमहल में खबर पहुंची कि राजधानी के बौद्ध मठ में एक सुप्रसिद्ध और गुणी भिक्षु रहता है। वह भिक्षु हेइशिरो ही था। राजा के लोग हेइशिरो के पास पहुंचे। उसके आनंद की सीमा नहीं थी, क्योंकि उसका उद्देश्य सफल होने जा रहा था।

राजमहल में आकर हेइशिरो ने एकांत में भगवान्‌ बुद्ध की प्रार्थना की। उसके बाद उसने राजा की अच्छी तरह परीक्षा की, लेकिन जो रोग राजा को था, उसकी कोई औषधि वह नहीं जानता था। वह तो सिर्फ भगवान्‌ तथागत से उसके जीवन की भीख ही मांग सकता था और भगवान्‌ ने उसकी प्रार्थना सुन ली।

धीरे-धीरे सम्राट्‌ स्वस्थ हो गए। चारों तरफ हेइशिरो की जय-जयकार होने लगी। सारे देश में उसका नाम फैल गया। सब लोग उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे। हेइशिरो ने सोचा-“अब प्रतिशोध लेने का समय आ पहुंचा है ।’ एक दिन रात के समय वह इसी बात पर सोच-विचार रहा था, उसी समय एक आश्चर्यजनक बात हुई। सारा कमरा एक अपूर्व प्रकाश से जगमगा उठा। हेइशिरो ने देखा, एक ज्योतिर्मय पुरुष धीरे-धीरे उसकी ओर आ रहा है। मृदु हास्य से उसका मुखमंडल उज्ज्वल हो रहा है।

हेइशिरो को पहचानने में देर नहीं लगी । उनकी आराधना में ही उसने सारा जीवन बिता दिया था। वे स्वयं भगवान्‌ तथागत थे। आगे बढ़कर उन्होंने हेईशिरो के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और चुपचाप जैसे आए थे, वैसे ही वापस लौट गए।

हेइशिरों कमरे से बाहर निकलकर बरामदे में आया। उसको ऐसा लगा, मानो समस्त संसार में अभूतपूर्व प्रकाश फैल गया है। सारी दुनिया में एक अद्भुत शांति का साम्राज्य स्थापित हो गया है। कहीं कोई हिंसा नहीं, कोई ईर्ष्या-द्वेष नहीं। पृथ्वी का यह नूतन रूप देखकर वह अवाक्‌ रह गया।

जिस उद्देश्य के लिए वह भिक्षु हुआ था, वह अकस्मात्‌ समाप्त हो गया। प्रतिहिंसा की जो अग्नि उसके हृदय में धधक रही थी, वह अचानक बुझ गई | उसका मन शांत हो गया। अपने इस हदय-परिवर्तन के लिए वह भगवान्‌ तथागत के प्रति श्रद्धानत हो गया। दूसरे दिन उसने अपने एक भक्त को मासामू को बुला लाने के लिए भेजा। मासामू स्वयं भी मिलने को उत्सुक था; क्योंकि उसने इस भिक्षु का नाम सुना था। वह तुरंत आया।

हेइशिरो के सामने एक चौकी पर मासामू के वे ही गेटे पड़े हुए थे, जिनसे कभी मासामू ने हेडशिरों को बिना किसी अपराध के चोट मारी थी। मासामू ने न तो उस साधु को ही पहचाना और न अपने गेटे के जोड़े को ही। उसने पूछा-“ये किसकी चरण-पादुका हैं, जिनको आपने इतना सम्मान दे रखा है?”

हेइशिरो ने सारा वृत्तांत कह सुनाया। उसे सुनकर मासामू को बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वह हेइशिरो से बार-बार क्षमा मांगता हुआ उसके चरणों पर गिर पड़ा। हेइशिरो ने आगे बढ़कर उसको अपने हृदय से लगा लिया। उसने कहा-“बेटे, गलतियां किससे नहीं होतीं । उन्हें भुला देना ही मनुष्य का श्रेष्ठ धर्म है। छोटी-छोटी बातें यदि हम अपने मन के भीतर रखे रहें, तो उससे हमारा मन ही खराब होता है।”

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